उभी मैं सरवर तीर.....(धुनः ब्रहणी)
दोहा: प्रीतम प्रीत लगाय के,
तुम दूर देश मत जाय ।
बसो हमारी नगरी में,
पिया हम मांगे तुम खाय ॥
आधी रैन निकसी गई,
जगत गया सब सोय ।
जांको चिन्ता पीव की,
नींद कहाँ से होय ॥
स्थाई: ब्रेहणी बैठी पीहर में,
पियो बसे परदेश ।
खान पान सब त्यागिया रे,
त्यागिया वस्त्र वेश पियाजी,
उभी मैं सरवर तीर ।
नैणां सूं ढलक्यो नीर पियाजी,
उभी मैं सरवर तीर
धूणी धूखे ज्यूं काळजो रे,
जळ जळ गयो रे शरीर ।
मछली ज्यू तड़फत फिरूं रे,
कद होसी समदर सीर पियाजी,
उभी मैं सरवर तीर ॥
सूता नी आवे नींदड़ी रे,
जागूं तो नहीं रे सुहाय ।
विरह काले नाग ज्यूरे,
काढ काळजो खाय सजन म्हारा,
उभी मैं सरवर तीर ॥
बेदरदी पिया दया नहीं आई रे,
विरह गयो रे लगाय।
कयो चरणों रे माँय राखसूं जी,
अधबिच दीवी छिटकाय पिया
उभी मैं सरवर तीर ।।
रूप स्वरूप आपरो है,
ज्यां ने झुर रही ब्रेहणी अनेक।
‘सिमरत दासी' आपरी रे,
अरे दया हमारी देख सजन म्हारा,
उभी मैं सरवर तीर ॥
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